ज्ञानी वह है जो आत्मा को जानता है। वह सापेक्ष और निरपेक्ष मे भेद कर सकता है। जब मनुष्य इस सत्य की अनुभूति करता है कि वह वास्तव मे परम शुद्ध आत्मा है तो उसे आनंद की उपलब्धि होती है। यदि किसी ने ऐसी अनुभूति प्राप्त नही की है तो सबकुछ व्यर्थ है, चाहे उसने ढेरों शास्त्रों और सदग्रंथों का अध्ययन किया हो अथवा प्रकांड पंडित होने की कीर्ति अर्जित कर ली हो।
केवल मनुष्य ही अपने अपने चारों ओर के घटनामय संसार को समझने की योग्यता रखता है, वह संसार के चक्करों और तौर तरीकों को जान सकता है। वह विकास और प्रत्यार्वतनों की संकुचन और विस्तार की गहराई तक खोज करता है, किंतु उसे इनको अधिक महत्व नही देना चाहिए। यह खोज निरंतर व सघन साधना के द्वारा होना चाहिए। प्रतेक जीवधारी मे असीम आत्मिक क्षमताएं निहित होती है। मनुष्य मे यह क्षमता ईश्वरीय ज्ञान के रुप मे मौजूद होती है। इस क्षमता का विकास करना ही जीवन की सार्थकता है।
मनुष्य केवल हार-मांस का पुतला नही है। उसमे कभी न समाप्त होने वाले दैविक आनंद का स्रोत है। व्यक्ति शरीर नही बल्कि आत्मा है। आत्मा ही व्यक्तित्व है। मनुष्य जब अपनी आत्मा को पहचान लेता है, तभी आनंद की अनुभूति करता है। इस आनंद की उपलब्धि धन, सत्ता या अधिकार से विद्वत्ता या अन्य किसी उच्च स्थिति से अर्थात कीर्ति या बल से नही होती।
इस परम शाश्वत आनंद की उपेक्षा कर मनुष्य इंद्रियों की वासनाओं के सुख-भोग को आनंद समझ बैठने की भुल करता है और अपना जीवन इसकी प्राप्ति के प्रयत्नों मे व्यर्थ गंवाता है। यह कांटो से भरे जंगलो मे और धुल से भरे रेगिस्तान मे भटकता रहता है। वह हर किसी से कृपा प्राप्त करने के लिए हाथ फैलाता है, पैर पकड़ता है और अपने आपको स्वयं ही लज्जित और अपमानित करता है। यह सब अज्ञान का परिणाम है, जो उसे अंधा बना देता है।
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