सुख भी देती है धोखा।
- तन सुखाय पिंजर कियो, धरै रैन दिन ध्यान। तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान।
- माणिक मोती और हीरे, जितने रतन जग माहीं। सब वस्तु को मोल जगत मे, मोल बुद्दी को नाहीं।
- प्रतिकूल वस्तु और परिस्थिति के होने पर व्यक्ति के लिए सुख भी दुख का कारण बन जाते है ।सुख की इच्छा सभी करते हैं, पर सुखी कौन है और सुख है कहाँ ? सुख का उदभव धर्म और कर्म के द्वारा होता है। धर्म और कर्म से ही सच्चा सुख मिलता है। अनेक प्रकार के अस्थायी सुखों की प्राप्ति के बाद जब मानव शरीर मृत्यु का ग्रास बनता है तब सुख भी दुख का कारण बन जाते है, तब सुख साथ नही देता। केवल धर्म और अच्छे कर्म ही साथी होता है।
धर्म का ज्ञान जरुरी है
- पृथ्वी पर राजा से लेकर रंक तक आशा-आकांक्षा के मध्य अस्थिर है। एश्ववर्य, उपलब्धियाँ, धन, बल आदि मे भी असंतोष ही है। कामनाएं कभी समाप्त नही होती। अत: धर्म के अनुशीलन मे ही परम संतोष है। धर्माचरण से ही इन्द्रिय शक्ति कि सम्यक स्फुर्ति, तृप्ति की साधना करने के बाद सभी प्रकार से जगत से बाहरी यथार्थ तत्व को आत्मा मे उपलब्ध करने मे ही सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मानंद की तुलना मे हर एश्वर्य तुच्छ है।
- जगत के सुख सीमित ,अस्थायी और धोखा देने वाले है। यदि अनुकुल परिस्थिति, वस्तु और पदार्थ व्यक्ति को प्रप्त होते है, तब वे सुख के कारण बन जाते है और यदि प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति की प्राप्ति हो जाती है तो वे ही दुख के कारण बन जाते है।
धर्म के अनुकुल कर्म हो
- संसार मे अनुकुलता और प्रतिकुलता मे परिवर्तन आता रहता है। यह भी सच है कि मनुष्य को हमेशा अनुकुलता प्राप्त नही होती और वही चाहता भी है। यही कारण है कि जो दुख देता है। विषयों से उत्पन्न होने वाले सुख और दुख दोनो अनित्य है। जिन विषयों से भोगकाल मे सुख प्रतीत होता है, उन्ही विषयों से वियोग की दशा मे दुख प्राप्त होता है।संसार मे कोई ऐसा भोग नही है जिसका वियोग न हो। जिसका वियोग निश्चित है, वह नाशवान और अस्थिर है, और सुख का कारण भी नही है। वस्तुतः जगत की वस्तुओं से सुख की प्रतीति किसी धर्म से नही अपितु अज्ञान से है। अतएव मानव का कर्तव्य है कि जिस उपाय द्वारा वह मोह से मुक्त होकर आत्म उपलब्धि करा सकता है, वही उपाय करे।
- आत्मोन्नति ही मनुष्य जन्म का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मुल साधन कर्म है। धर्म और कर्म के बिना जीवन शुन्य है। धर्म क्या है और कर्म क्या है। जो धारण किया जाए वही धर्म है। और जो धर्म के अनुसार किया जाए वही कर्म है।धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित है, बल्कि परिचारित भी है।
- जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते है और उसी के अनुरुप कर्म करता है, यथार्थ मे वही मनुष्य है। अतः मनुष्य जीवन प्रप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्म है। ईश्वर ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है। मनुष्य श्रृष्टि की श्रेष्ट रचना है।
धर्म की जय - कर्म की जय
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